***Beti Shayri***
पापा की अपने
दिल-ओ-जान कहलाती है,
फिर क्यों ये बेटियां,
अपने ही घर मेहमान कहलाती हैं।
मां की लोरी सुनकर
सोती है कई बार,
पापा के कंधे पर,
मेले देखे कई हज़ार,
घर के आंगन में जो
अपना बचपन सजाती है,
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
कोई डांट लगाए तो
पापा याद आते हैं,
सोते हुए जो डर जाए
तो पापा याद आते हैं,
खुशी हो या गम बस
पापा-पापा बुलाती है,
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
गर रुठ जाए कभी तो
मुंह फेर लेती है,
अपनी बातों से सबका
मन मोह लेती है,
कभी खुद रोकर रुलाती
है, तो कभी हंसा जाती है,
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
ना ही दौलत और ना ही
महल चाहिए,
परिवार खुश रहे,
उसे कुछ नहीं चाहिए,
अपनों की खुशी में
जो फूले नहीं समाती है,
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
अपना बेटी होने का
फर्ज़ वो निभाने लगी,
थोड़ी बड़ी हुई तो
कामों में हाथ बटाने लगी,
मुश्किल घड़ियों में
जो, अक्सर बेटा बन जाती
है,
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
अपने मोहल्ले,
अपने देश की शान है वो,
दुनिया में अपने
पापा की पहचान है वो,
वही है जो घर का मान
और सम्मान कहलाती है,
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
बचपन से जवानी का ये
सफर आ ही गया,
सालों गुज़र गए
रोशनी का समां भी आ ही गया,
मां की लोरी,
पापा की बातें, बस यादें रह जाएंगी,
भाई-बहन से नोक-झोंक
रह रह उसे सताएंगी,
रो रो पूछे पापा से
क्या सच में पराया धन हूं मैं,
आपके आंगन में क्या
गुज़रा हुआ बचपन हूं मैं,
पापा बोले, अरे पागल तू तो मेरी हर सांस में बसती है,
अब तू ही बता,
तू पराया धन कैसे हो सकती है,
वो चली तो गई बिदा
होकर, लेकिन
अपना घर भूल न पाती
है,
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
पापा की अपने
दिल-ओ-जान कहलाती है,
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
फिर क्यों ये
बेटियां, अपने ही घर मेहमान
कहलाती हैं।
Written
by D.Kumar
Love
you always my life.....ummmmmaaa
1 टिप्पणियाँ
अति सुन्दर
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